ध्यान करना चाहते है, तो इन्हें गौर से पढिए।

ध्यान एक कल्पवृक्ष है। ध्यान एक ऐसी महत्त्वपूर्ण शिक्षा है, जिसकी आवश्यकता हमें लौकिक जीवन में भी पड़ती है और आध्यात्मिक अलौकिक क्षेत्र में भी उसका उपयोग किया जाता है।

ध्यान को जितना सशक्त बनाया जा सके, उतना ही वह किसी भी क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। मनुष्य की इच्छापूर्ती की सभी दिशाओंमें ध्यान की महत्त्वपूर्ण भुमिका है।

उपासना क्षेत्र में भी ध्यान की इन दोनों ही धाराओं का उपयोग किया जाता है। अपने स्वरूप और विभूतियों की भक्ती व बोध तथा अपने लक्ष्य की ओर प्रखरता दोनों ही प्रयोजनों के लिए ध्यान का प्रयोग किया जाता है।

आध्यात्मिकता में ध्यान का उद्देश्य है, अपने स्वरूप और लक्ष्य की विस्मृति के कारण उत्पन्न वर्तमान विपन्नता से छुटकारा पाना। 'एक बच्चा रस्ते से चल पडा, अपने माँ पिता के पास जाने के लिए। रास्ते में मेला पड़ा और वह उसी में रम गया। वहाँ के दृश्यों में इतना रमा कि अपने घर तथा गंतव्य को ही नहीं पहुंचा, अपना पता भी भूल गया।' यह कथा हम सब पर लागू होती है।

अपना नाम, पता, परिचय पत्र, टिकट आदि सब कुछ गँवा देने पर हम असमंजस भरी स्थिति में खड़े हैं कि आखिर हम हैं कौन? कहाँ से आए हैं और कहाँ जाना था? स्थिति विचित्र है, इसे न स्वीकार करते बनता है और न अस्वीकार करते। स्वीकार करना इसलिए कठिन है कि हम पागल नहीं, अच्छे-खासे समझदार हैं।

सारे कारोबार चलाते हैं, फिर आत्मविस्मृत कहाँ हुए? अस्वीकार करना भी कठिन है क्योंकि वस्तुतः हम ईश्वर के अंश हैं, महान मनुष्य जन्म के उपलब्धकर्ता हैं तथा परमात्मा को प्राप्त करने तक घोर अशान्ति की स्थिति में पड़े रहने की बात को भी जानते हैं।

साथ ही यह भी स्पष्ट है कि जो होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है और जो करना चाहिए वह कर भी नहीं रहे हैं। यही अन्तर्द्वन्द्व उभरकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छाया रहता है और हमें निरंतर घोर अशान्ति अनुभव होती है।

जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। यह पूर्णता ईश्वरीय स्तर में हो सकती है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए उस लक्ष्य पर ध्यान को एकाग्र करना आवश्यक है।

महत्त्वपूर्ण इमारतें बनाने से पूर्व उनके नक्शे व छापे  बनाए जाते हैं। इंजीनियर, कारीगर उसे देखकर व समझकर अपना निर्माण कार्यं चलाते हैं और समयानुसार इमारत बनकर तैयार हो जाती है।

भगवान का स्वरूप और गुण-कर्म कैसा हो इसकी ध्यान प्रतिमा विनिर्मित की जाती है और फिर उसके साथ समीपता, एकता, तादात्म्यता स्थापित करते हुए उसी स्तर का बनने के लिए प्रयत्न किया जाता है।

ध्यान-प्रक्रिया का यही स्वरूप है। असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए ध्यान-एकाग्रता के कुशल अभ्यास से बढ़कर और कोई अधिक उपयोगी उपाय हो ही नहीं सकता।

आत्मनियंत्रण की उत्तम स्थिति प्राप्त करने में ध्यान साधना से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। इसका लाभ आत्मिक और भौतिक (अर्थात सांसारिकता) दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से मिलता है।

विस्मरण का निवारण एवं आत्मबोध की भूमिका में जागरण, यही है ध्यानयोग का लक्ष्य। इसे हमे प्राप्त करनाही होगा।